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खरपतवार नियंत्रण

जानिए तोरिया यानी लाही की उन्नत प्रजातियां (Improved varieties of Toria (Lahi))

जानिए तोरिया यानी लाही की उन्नत प्रजातियां (Improved varieties of Toria (Lahi))

खरीफ और रबी सीजन के मध्य लगने वाली सरसों कुल की फसल तोरिया यानी लहिया कम समय में अच्छा फायदा दे सकती हैं। अगस्त के अंत में लगने वाली तोरिया देश में तिलहन की कमी के चलते अच्छी कीमत पर बिकेगी और इसकी कटाई के बाद किसान गेहूं की फसल भी ले सकते हैं। बेहद कम समय में लगातार दो फसलों का मिलना किसानों की माली हालत में सुधार ला सकता है।

खेत की करें गहरी जुताई

किसी भी मूसला जड़ यानी जमीन के अंदर तक जाने वाली जड़ों के अच्छे विकास के लिए खेत की गहरी
जुताई आवश्यक है। इसके अलावा मिट्टी के भुरभुरे होने पर बरसात होने की स्थिति में फसल पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। तोरिया चूंकि सरसों से भी पहले लगती है। लिहाजा आखिरी जोत में बुवाई से पूर्व 1.5 प्रतिशत क्यूनॉलफॉस 25 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से मिला दें ताकि कट्टा आदि कीट अंकुरित पौधों को काटकर फसल को नुकसान न पहुंचा पाएं।

उत्तर प्रदेश के लिए उन्नत किस्में

किसी भी फसल के उत्पादन का सीधा संबंध उसकी समय अवधि से होता है लेकिन वर्तमान दौर में वैज्ञानिक और किसान दोनों कम समय में तैयार होने वाली किस्मों की तरफ आकर्षित होने लगे हैं। कारण और धारणा साफ है कि कम समय में पकने वाली किस्मों में रिस्क फैक्टर भी कम रहता है। कम समय तक रहने वाले रिस्क को किसान नियंत्रित कर सकते हैं। ये भी पढ़े: भूमि विकास, जुताई और बीज बोने की तैयारी के लिए उपकरण पीटी 303 किस्म अधिकतम 95 दिन में पकती है। इससे 15 से 18 क्विंटल उपज मिलती है। भवानी किस्म अधिकतम 80 दिन लेती है और इससे 10 से 12 क्विंटल उपज मिलती है। टी-9 किस्म की तोरिया 95 दिन में 12 से 15 कुंतल तक उपज मिलती है। उक्त तीनों किस्में समूचे उत्तर प्रदेश में बोने योग्य है। पीअी 30 किस्म तराई क्षेत्र के लिए है और अधिकतम 95 दिन लेकर 14 से 16 कुंतल उपज देती है। मध्य प्रदेश के लिए जवाहर तोरिया 1 अच्छी किस्म है। यह अधिकतम 90 में पकती है। इससे 15 से 18 कुंतल उपज मिलती है। भवानी किस्म से 80 दिन में 10 से 12 एवं टाइप 9 किस्म से 95 दिन में 12 से 15 कुंतल उपज मिलती है। इसके अलावा तोरिया की संगम किस्म 112 दिन में पककर 6-7 ¨क्विंटल उपज प्रति एकड़ देती है। टीएल-15 व टीएच-68 किस्म 85 से 90 दिन में पककर औसतन छह कुंतल प्रति एकड़ तक उपज दे जाती है।

तोरिया की बुवाई का समय

तोरिया को अगस्त के अंतिम सप्ताह से सितंबर के पहले हफ्ते तक बोया जा सकता है। इसकी अगेती सिंचाई नहीं करनी चाहिए। इसकी सिंचाई फूल एवं फली बनने की अवस्था में ही करें। ​बाजाई के 20 से 30 दिन के अंदर निराई का काम कर लेवें। बोने से पहले बीज को दो से ढ़ाई ग्राम किसी प्रभावी फफूंदनाशक दवा से प्रतिकिलोग्राम बीज की दर से बीज उपचार अवश्य कर लेें।

बीज दर

तोरिया का ​बीज सवा किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से डालना चाहिए। असिंचित अवस्था में इसे दो किलोग्राम तक डाला जा सकता है। लाइन से लाइन की दूरी 30 सेमी एवं बीज को पांच सेण्टीमीटर गहरा डालना चाहिए। बुबाई 50 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट, 10 किलोग्राम जिंक व 25 किलोग्राम यूरिया से करेें। बुरकाव में पहले पानी के बाद ही बाकी यूरिया डालें।
टमाटर की इन किस्मों की खेती से किसान हो सकते हैं मालामाल, जानें टमाटर की खेती की पूरी विधि

टमाटर की इन किस्मों की खेती से किसान हो सकते हैं मालामाल, जानें टमाटर की खेती की पूरी विधि

टमाटर (Tomato; tamatar) एक ऐसी सब्जी है जिसका प्रयोग लगभग भारत के हर घर में किया जाता है। इसलिए टमाटर की फसल किसानों के लिए बेहद लाभदायक साबित हो सकती है क्योंकि इसकी बढ़ी हुई डिमांड को पूरा करने के लिए किसानों के पास हर मौसम में पर्याप्त मौके होते हैं। भारत में टमाटर की खेती मुख्य रूप से राजस्थान, कर्नाटक, बिहार, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल और आंध्रप्रदेश में की जाती है। यदि किसान टमाटर की खेती में उन्नत किस्मों का इस्तेमाल करें तो इसकी खेती से अच्छी खासी कमाई की जा सकती है।

बाजार में उपलब्ध टमाटर की उन्नत किस्में

आजकल वैसे तो बाजार में टमाटर की बहुत प्रकार की किस्में उपलब्ध हैं, लेकिन कुछ उन्नत किस्में भारतीय किसान बहुतायत से प्रयोग करते हैं, जिससे किसानों को आमदनी होने की संभावना बढ़ जाती है। बाजार में उपलब्ध टमाटर की उन्नत किस्मों में पंजाब छुहारा, पीकेएम 1, पूसा रूबी, पैयूर-1, शक्ति, पंत टी3, सोलन गोला, अर्का मेघाली, सएल 120, पूसा गौरव, एस 12, पंत बहार, पूसा रेड प्लम, पूसा अर्ली ड्वार्फ, पूसा रूबी, सीओ-1, सीओ 2, सीओ 3, एस-12, अर्का सौरभ, अर्का विकास, अर्का आहूती, अर्का आशीष, अर्का आभा, अर्का आलोक, एचएस101, एचएस102, एचएस110, हिसार अरुण, हिसार ललिता, हिसार ललित, हिसार अनमोल, केएस.2, नरेंद्र टमाटर 1 और नरेंद्र टमाटर 2 प्रमुख हैं। इन किस्मों के साथ ही यदि हम टमाटर की संकर किस्मों की बात करें तो उनमें COTH 1 हाइब्रिड टमाटर, रश्मि, वैशाली, रूपाली, नवीन, अविनाश 2, MTH 4, सदाबहार, गुलमोहर, अर्का अभिजीत, अर्का श्रेष्ठ, अर्का विशाल, अर्का वरदान, पूसा हाइब्रिड 1, पूसा हाइब्रिड 2 और सोनाली प्रमुख हैं।


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कितना हो सकता है उत्पादन

अगर किसान टमाटर की उन्नत किस्मों का उपयोग करता है, तो कुछ किस्मों में एक एकड़ में 500 क्विंटल तक टमाटर की पैदावार हो सकती है। जबकि सभी किस्मों में इतनी पैदावार नहीं होती। टमाटर की पैदावार मिट्टी की उर्वरता, मौसम, खाद, सिंचाई और देखभाल पर निर्भर करती है।

टमाटर की रोपाई का सही समय क्या है

यदि किसान सितंबर-अक्टूबर में टमाटर की रोपाई करना चाहते हैं तो इसकी नर्सरी जुलाई माह के अंत में तैयार कर लें। इसके बाद पौधे की रोपाई सितम्बर या अक्टूबर में करें। इसके साथ ही यदि किसान जनवरी माह में टमाटर की रोपाई करना चाहते हैं तो इसकी नर्सरी नवम्बर माह में तैयार कर लें। इसके बाद जनवरी या फरवरी में टमाटर की रोपाई प्रारम्भ कर दें।

कैसे तैयार करें टमाटर की पौध

टमाटर की खेती के लिए टमाटर की पौध को तैयार करना बेहद महत्वपूर्ण कार्य है, इसके लिए किसान को ऐसी नर्सरी बनाना चाहिए जहां पानी का ठहराव ना हो। नर्सरी बनाने के लिए किसान को जमीन से ऊपर 90 से 100 सेंटीमीटर चौड़ी और 10 से 15 सेंटीमीटर ऊंची मिट्टी एकत्र करना चाहिए और उसमें नर्सरी बनाना चाहिए, ऐसे में नर्सरी में पानी के ठहराव की संभावना कम हो जाती है। टमाटर के बीजों को नर्सरी में 4 सेंटीमीटर की गहराई में बोना चाहिए। इसके बाद थोड़ी सिंचाई भी करना चाहिए ताकि नमी बरकरार रहे। जब नर्सरी में पौधे अंकुरित हो जाएं तो उसके बाद लगभग 5 सप्ताह का इन्तजार करना चाहिए। 5 सप्ताह के बाद पौधे 10-15 सेंटीमीटर लम्बे हो जायेंगे। जिनको सावधानी से खेत में रोपाई करना चाहिए।

टमाटर की खेती में विशेष ध्यान रखने वाली चीजें

टमाटर की खेती के लिए इस्तेमाल की जा रही जमीन का पीएच मान 7 से 8.5 के बीच होना चाहिए। इस खेती के लिए काली दोमट मिट्टी, रेतीली दोमट मिट्टी और लाल दोमट मिट्टी बेहद अच्छी मानी जाती है। इस प्रकार की मिट्टियों में टमाटर की फसल ज्यादा अच्छी होती है। यदि टमाटर गर्मियों के मौसम में लगाया गया है, तो हर सप्ताह सिंचाई आवश्यक है। जबकि सर्दी के मौसम में लगाए गए टमाटर में 15 दिनों में सिंचाई की जा सकती है। टमाटर की अच्छी पैदावार प्राप्त करने के लिए समय-समय पर खेत में निराई-गुड़ाई करते रहना चाहिए।

टमाटर की खेती में किस प्रकार से इस्तेमाल करें खाद एवं उर्वरक

टमाटर की खेती में जैविक खाद का इस्तेमाल बहुतायत से किया जाता है। इसके अलावा किसान प्रति हेक्टेयर नेत्रजन-100 किलोग्राम, स्फूर-80 किलोग्राम तथा पोटाश-60 किलोग्राम के हिसाब से रासायनिक उर्वरक का इस्तेमाल कर सकते हैं।


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टमाटर की खेती में किस प्रकार से करें खरपतवार का नियंत्रण

टमाटर की खेती में पानी की सिंचाई होती रहती है, जिससे खरपतवार को फलने फूलने में सहायता मिलती है। इसके नियंत्रण के लिए किसान भाई निराई-गुड़ाई के आलावा खरपतवार नाशकों का इस्तेमाल भी कर सकते हैं। खरपतवार नियंत्रण के लिए किसान भाई ‘लासो’ खरपतवार नाशी का 2 किलोग्राम/हैक्टेयर कि दर से छिड़काव कर सकते हैं। इसके अलावा टमाटर की रोपाई के 4-5 दिन बाद स्टाम्प का भी 1 किलोग्राम प्रति हैक्टर की दर से इस्तेमाल कर सकते हैं। इससे खरपतवार की समस्या का पूर्ण समाधान हो जाता है और फसल के ऊपर किसी भी प्रकार का कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता।
Cow-based Farming: भारत में गौ आधारित खेती और उससे लाभ के ये हैं साक्षात प्रमाण

Cow-based Farming: भारत में गौ आधारित खेती और उससे लाभ के ये हैं साक्षात प्रमाण

दूध की नदियां बहाने वाला देश और सोने की चिड़िया उपनामों से विख्यात, भारत देश के अंग्रेजों के राज में इंडिया कंट्री बनने के बाद, देश में सनातन शिक्षा विधि, स्वास्थ्य रक्षा, कृषि तरीकों एवं सांस्कृतिक विरासत का व्यापक पतन हुआ है।

आलम यह है कि, कालगणना (कैलेंडर), ऋतु चक्र जैसे विज्ञान से दुनिया को परिचित कराने वाले देश में, आज गौ आधारित प्राकृतिक कृषि को अपनाने के लिए लोगों को प्रेरित करना पड़ रहा है।

घर-घर गौपालन करने वाले भारत में सरकार को सार्वजनिक गौशाला बनाना पड़ रही हैं। पुरातन इतिहास में एक नहीं बल्कि ऐसे कई प्रमाण हैं कि कृषि प्रधान भारत में गौ आधारित कृषि को विशिष्ट स्थान प्रदान किया गया था। जैविक तरीकों की आधुनिक खेती में अब गौवंश के महत्व को स्वीकारते हुए, गौमूत्र एवं गाय के गोबर का प्रचुरता से उपयोग किया जा रहा है।

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सरकारें भी गौपालन के लिए नागरिक एवं कृषकों को प्रेरित कर रही हैं। छत्तीसगढ़ सरकार ने तो किसान एवं पंचायत समितियों से गौमूत्र एवं गाय का गोबर खरीदने तक की योजना को प्रदेश मे लागू कर दिया है।

क्यों पूजनीय है गौमाता

गौमाता के नाम से सम्मानित गाय को भारत में पूजनीय माना जाता है। हिंदू धर्म के अनुसार गाय में 33 करोड़ देवताओं का वास मानकर गौमाता की पूजा अर्चना की जाती है। प्रमुख त्यौहारों खासकर दीपावली के दिन एवं अन्नकूुट पर गाय का विशिष्ट श्रृंगार कर पूजन करने का भारत में विधान है।

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हिंदू पूजन विधियों में गौमय (गोबर) तथा गोमूत्र को भारतीय पवित्र और बहुगुणी मानते हैं। गाय के गोबर से बने कंडों का हवन में उपयोग किया जाता है। वातावरण शुद्धि में इसके कारगर होने के अनेक प्रमाण हैं। अब तक अपठित सिंधु-सरस्वती सभ्यता में गौवंश संबंधी लाभों के अनेक प्रमाण मिले हैं। सिंधु-सरस्वती घाटी एवं वैदिक सभ्यता में गौ आधारित किसानी से स्पष्ट है कि भारत में गौ आधारित कृषि कितनी महत्वपूर्ण रही है। सिंधु-सरस्वती सभ्यता से जुड़े अब तक प्राप्त प्रमाणों के अनुसार इस सभ्यता काल में मानव बस्तियों के साथ खेत, अनाज की प्रजातियों आदि के बारे में कृषकों ने काफी तरक्की कर ली थी। सिंधु-सरस्वती सभ्यता से जुड़ी अब तक प्राप्त हुई मुद्राओं में बैल के चित्र अंकित हैं। इससे इस कालखंड में गाय-बैल के महत्व को समझा जा सकता है।

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खेत, जानवर, गाड़ी/ गाड़ी चालक, यव (बार्ली), चलनी, बीज आदि संबंधी चित्र भी इस दौर की कृषि पद्धति की कहानी बयान करते हैं। सिंधु-सरस्वती सभ्यता के अब तक प्राप्त प्रमाणों में अनाज का संग्रह करने के लिये कोठार (भंडार) की भी पुष्टि हुई है। संस्कृत लिपि में प्रयोग में लाए जाने वाले लाङ्गल, सीर, फाल, सीता, परशु, सूर्प, कृषक, कृषीवल, वृषभ, गौ शब्द अपना इतिहास स्वयं बयान करने के लिए पर्याप्त हैं।

 वैदिक संस्कृत और आधुनिक फारसी में भी बहुत से साम्य हैं। फारसी में उच्चारित गो शब्द का मूल अर्थ गाय से ही है। मतलब गाय भारत में पनपी कई संस्कृतियों का अविभाज्य अंग रही है। गाय के गोबर का खेत में खाद, मकान की लिपाई-पुताई में उपयोग भारत में विधि नहीं बल्कि परंपरा का हिस्सा है। रसोई में चूल्हे को सुलगाने से लेकर पूजन हवन तक गाय के गोबर के कंडों की अपनी उपयोगिता है। गाय की उपयोगिता इस बात से भी प्रमाणित होती है कि पुरातन कृषि मेें गौपालक को दूध, दही, छाछ, मक्खन, घी का पौष्टिक आहार प्राप्त होता था वहीं खेती कार्य के लिए तगड़े बैल भी गाय से प्राप्त होते थे।

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खेत में हल जोतने, अनाज ढोने, गाड़ी खींचने के लिये बैलों का उपयोग पुराने समय से भारत में होता रहा है। खेत की सिंचाई के लिए रहट चलाने में भी बैलों की तैनाती रहती थी।

कभी चलता था 24 बैलों वाला हल गौवंश से मिली इंसान, शहर को पहचान कामधेनु करे इतनी कामनाओं की पूर्ति

24 बैलों वाला हल

कई हॉर्स पॉवर वाले आज के प्रचलित आधुनिक ट्रैक्टर का काम पुराने समय में बैल करते थे। पुरातन ग्रंथों में दो, छह, आठ, बारह, यहां तक कि, 24 बैलों वाले भारी भरकम हलों का भी उल्लेख है।

गाय के नाम अनेक

आपको अचरज होगा कि अनेक शब्दों, नामों का आधार गाय से संबंधित है। गोपाल, गोवर्धन, गौशाला, गोत्र, गोष्ठ, गौव्रज, गोवर्धन, गौधूलि वेला, गौमुख, गौग्रास, गौरस, गोचर, गोरखनाथ (शब्द अभी और शेष हैं) जैसे प्रतिष्ठित शब्दों की अपनी विशिष्ट पहचान है। उपरोक्त वर्णित शब्दों से उसकी प्रकृति की पहचान सुनिश्चित की जा सकती है। जैसे गौधूली बेला से सूर्यास्त के समय का भान होता है, इसी तरह गाय के बछड़े को वसु कहा जाता है। इससे ही भगवान श्रीकृष्ण के पिता का नाम वसुदेव रखा गया। हिंदुओं के प्रमुख त्यौहार दीपावली के कुछ दिन पहले वसुबारस मनाकर गौवंश का पूजन कर पशुधन के प्रति कृतज्ञता जताई जाती है।

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ऋग्वेद काल में भी रथों में बैल जोतने का जिक्र है। मतलब गाय कृषक, कृषि के साथ ही ग्राम वासियों का प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष तरीके से सहयोगी रही है। गाय और बैल पुरातन काल से भारतीय जनजीवन का आधार रहे हैं। गाय की इन बहुआयामी उपयोगिताओं के कारण ही गौमाता को ‘कामधेनु’ भी कहा जाता है। मानव की इतनी सारी कामनाएं पूरी करने वाली बहुउपयोगी ‘कामधेनु’ (इच्छा पूर्ति करने वाली गाय) वर्तमान मशीनी युग (कलयुग) में और अधिक महत्वपूर्ण होती जा रही है।

गबरबंद

प्राचीन भारत में पानी रोकने के लिए मिट्टी पत्थर से बनाए जाने वाले गबरबन्द को बनाने में गोबर, मिट्टी, घासफूस का उपयोग किया जाता था। महाभारत में गायों की गिनती से संबंधित घोषयात्रा, गोग्रहण का भी उल्लेख है।

गौ अधारित खेती एवं फसल चक्र

भगवान श्रीकृष्ण के पिता का नाम जहां गौवंश पर आधारित वसुदेव है, वहीं उनके भाई बलराम को ‘हलधर’ भी कहा जाता है। हल बलराम का अस्त्र नहीं, बल्कि कृषि कार्य में उपयोगी था। इससे उस कालखंड की खेती-किसानी के तरीकों का भी बोध होता है।

चक्र का महत्व समझिये

प्राचीन भारत में बैल गाड़ियों में प्रयुक्त होने पहिये, कुएं से पानी खींचने के लिये रहट में लगने वाला चक्र, कोल्हू के बैल की चक्राकार परिक्रमा के अपने-अपने महत्व हैं। मतलब कृषि की सुरक्षा में भी चक्र महत्वपूर्ण है। खेती के महत्वपूर्ण चक्र को काल या ऋतु चक्र कहा जाता है। 

 भारत के पूर्वज किसानों ने साल में मौसम के बदलाव के आधार पर फसल चक्र का तक निर्धारण कर लिया था। ऋतुचक्र के मुताबिक ही किसान रवि और खरीफ की फसल का निर्धारण करते आए हैं। बीज बोने, क्यारी बनाने आदि में गौवंश का उल्लेखनीय उपयोग होता आया है। गौ एवं पशु पालन के लिए भी ऋतु चक्र में पूर्वजों ने बहुमूल्य व्यवस्थाएं की थीं। फसल चक्र का खेती, कृषि पैदावार के साथ ही गौ एवं अन्य पशु पालन से पुराना बेजोड़ नाता रहा है।

गौ अधारित खेती

भगवान श्रीकृष्ण के जीवन में गौपालन, गोकुल और बृंदाबन से जुड़ी बातें गौपालन के महत्व को रेखांकित करती हैं। पुरातन व्यवस्था में पालतू गायों का दूध, दही, मक्खन जहां अर्थव्यवस्था की धुरी था वहीं खेती में भी गाय की भूमिका अतुलनीय रही है। मानव उदर पोषण हेतु अनाज की पूर्ति के लिए गौ एवं पशु-पालन के साथ खेती किसानी के मिश्रित प्रबंधन का भारत में इतिहास बहुत पुराना है। गाय-बैलों के पालन का प्रबंध, खाद बनाने में गौमूत्र एवं गोबर का उपयोग, बीजारोपण, सिंचाई, खरपतवार नियंत्रण आदि के लिए भारतवासी पुरातनकाल से गौवंश का बखूबी उपयोग करते आए हैं।

केंद्र सरकार ने इस खरपतवार नाशी केमिकल के आयात पर लगाया बैन

केंद्र सरकार ने इस खरपतवार नाशी केमिकल के आयात पर लगाया बैन

भारत सरकार की तरफ से कम कीमत वाले 'ग्लूफोसिनेट टेक्निकल' के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया है। भारत भर में यह निर्णय 25 जनवरी, 2024 से ही लागू कर दिया गया है। बतादें, कि 'ग्लूफोसिनेट टेक्निकल' का उपयोग खेतों में खरपतवार को हटाने के मकसद से किया जाता है। यहां जानें ग्लूफोसिनेट टेक्निकल पर रोक लगाने के पीछे की वजह के बारे में। 

भारत के कृषक अपने खेत की फसल से शानदार उत्पादन हांसिल करने के लिए विभिन्न प्रकार के केमिकल/रासायनिक खादों/ Chemical Fertilizers का उपयोग करते हैं, जिससे फसल की उपज तो काफी अच्छी होती है। परंतु, इसके उपयोग से खेत को बेहद ज्यादा हानि पहुंचती है। इसके साथ-साथ केमिकल से निर्मित की गई फसल के फल भी खाने में स्वादिष्ट नहीं लगते हैं। कृषकों के द्वारा पौधों का शानदार विकास और बेहतरीन उत्पादन के लिए 'ग्लूफोसिनेट टेक्निकल' का उपयोग किया जाता है। वर्तमान में भारत सरकार ने ग्लूफोसिनेट टेक्निकल नाम के इस रसायन पर प्रतिबंध लगा दिया है। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि सरकार ने हाल ही में सस्ते मूल्य पर मिलने वाले खरपतवारनाशक ग्लूफोसिनेट टेक्निकल के आयात पर रोक लगा दी है। आंकलन यह है, कि सरकार ने यह फैसला घरेलू विनिर्माण को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से किया है।

ग्लूफोसिनेट टेक्निकल का इस्तेमाल किस के लिए किया जाता है 

किसान ग्लूफोसिनेट टेक्निकल का उपयोग खेतों से हानिकारक खरपतवार को नष्ट करने या हटाने के लिए करते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ किसान इसका इस्तेमाल पौधों के शानदार विकास में भी करते हैं। ताकि फसल से ज्यादा से ज्यादा मात्रा में उत्पादन हांसिल कर वह इससे काफी शानदार कमाई कर सकें। 

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ग्लूफोसिनेट टेक्निकल केमिकल का आयात प्रतिबंधित 

ग्लूफोसिनेट टेक्निकल केमिकल पर प्रतिबंध का आदेश 25 जनवरी, 2024 से ही देश भर में लागू कर दिया गया है। ग्लूफोसिनेट टेक्निकल केमिकल पर प्रतिबंध को लेकर विदेश व्यापार महानिदेशालय का कहना है, कि ग्लूफोसिनेट टेक्निकल के आयात पर प्रतिबंध मुक्त से निषेध श्रेणी में किया गया है।

उन्होंने यह भी कहा है, कि यदि इस पर लागत, बीमा, माल ढुलाई मूल्य 1,289 रुपये प्रति किलोग्राम से ज्यादा होता है, तो ग्लूफोसिनेट टेक्निकल का आयात पूर्व की भांति ही रहेगा। परंतु, इसकी कीमत काफी कम होने की वजह से इसके आयात को भारत में प्रतिबंधित किया गया है। 

सही लागत-उत्पादन अनुपात को समझ सब्ज़ी उगाकर कैसे कमाएँ अच्छा मुनाफ़ा, जानें बचत करने की पूरी प्रक्रिया

सही लागत-उत्पादन अनुपात को समझ सब्ज़ी उगाकर कैसे कमाएँ अच्छा मुनाफ़ा, जानें बचत करने की पूरी प्रक्रिया

सही लागत-उत्पादन अनुपात के अनुसार सब्ज़ी की खेती

भारत शुरुआत से ही एक कृषि प्रधान देश माना जाता है और यहां पर रहने वाली अधिकतर जनसंख्या का कृषि ही एक प्राथमिक आय का स्रोत है। पिछले कुछ सालों से बढ़ती जनसंख्या की वजह से बाजार में कृषि उत्पादों की बढ़ी हुई मांग, अब किसानों को जमीन पर अधिक दबाव डालने के लिए मजबूर कर रही है। इसी वजह से कृषि की उपज कम हो रही है, जिसे और बढ़ाने के लिए किसान लागत में बढ़ोतरी कर रहें है। यह पूरी पूरी चक्रीय प्रक्रिया आने वाले समय में किसानों के लिए और अधिक आर्थिक दबाव उपलब्ध करवा सकती है। भारत सरकार के किसानों की आय दोगुनी करने के लक्ष्य पर अब कृषि उत्पादों में नए वैज्ञानिक अनुसंधान और तकनीकों की मदद से लागत को कम करने का प्रयास किया जा रहा है। धान की तुलना में सब्जी की फसल में, प्रति इकाई क्षेत्र से किसानों को अधिक मुनाफा प्राप्त हो सकता है। वर्तमान समय में प्रचलित सब्जियों की विभिन्न फसल की अवधि के अनुसार, अलग-अलग किस्मों को अपनाकर आय में वृद्धि की जा सकती है। मटर की कुछ प्रचलित किस्म जैसा की काशी उदय और काशी नंदिनी भी किसानों की आय को बढ़ाने में सक्षम साबित हो रही है। सब्जियों के उत्पादन का एक और फायदा यह है कि इनमें धान और दलहनी फसलों की तुलना में खरपतवार और कीट जैसी समस्याएं कम देखने को मिलती है। सब्जियों की नर्सरी को बहुत ही आसानी से लगाया जा सकता है और जलवायुवीय परिवर्तनों के बावजूद अच्छा उत्पादन किया जा सकता है।


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भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (ICAR) के अनुसार भारत की जमीन में उगने वाली सब्जियों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है, जिनमें धीमी वृद्धि वाली सब्जी की फसल और तेज वृद्धि वाली सब्जियों को शामिल किया जाता है। धीमी वृद्धि वाली फसल जैसे कि बैंगन और मिर्च बेहतर खरपतवार नियंत्रण के बाद अच्छा उत्पादन दे सकती है, वहीं तेजी से बढ़ने वाली सब्जी जैसे भिंडी और गोभी वर्ग की सब्जियां बहुत ही कम समय में बेहतर उत्पादन के साथ ही अच्छा मुनाफा प्रदान कर सकती है।

कैसे करें खरपतवार का बेहतर नियंत्रण ?

सभी प्रकार की सब्जियों में खरपतवार नियंत्रण एक मुख्य समस्या के रूप में देखने को मिलता है। अलग-अलग सब्जियों की बुवाई के 20 से 50 दिनों के मध्य खरपतवार का नियंत्रण करना अनिवार्य होता है। इसके लिए पलवार लगाकर और कुछ खरपतवार-नासी रासायनिक पदार्थों का छिड़काव कर समय-समय पर निराई गुड़ाई कर नियंत्रण किया जाना संभव है। जैविक खाद का इस्तेमाल, उत्पादन में होने वाली लागत को कम करने के अलावा फसल की वृद्धि दर को भी तेज कर देता है।

कैसे करें बेहतर किस्मों का चुनाव ?

किसी भी सब्जी के लिए बेहतर किस्म के बीज का चुनाव करने के दौरान किसान भाइयों को ध्यान रखना चाहिए कि बीज पूरी तरीके से उपचारित किया हुआ हो या फिर अपने खेत में बोने से पहले बेहतर बीज उपचार करके ही इस्तेमाल करें। इसके अलावा किस्म का विपणन अच्छे मूल्य पर किया जाना चाहिए, वर्तमान में कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बीज निर्माता कंपनियां अपने द्वारा तैयार किए गए बीज की संपूर्ण जानकारी पैकेट पर उपलब्ध करवाती है। उस पैकेट को पढ़कर भी किसान भाई पता लगा सकते हैं कि यह बीज कौन से रोगों के प्रति सहनशील है और इसके बीज उपचार के दौरान कौन सी प्रक्रिया का पालन किया गया है। इसके अलावा बाजार में बिकने वाले बीज के साथ ही प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में होने वाले अनुमानित उत्पादकता की जानकारी भी दी जाती है, इस जानकारी से किसान भाई अपने खेत से होने वाली उत्पादकता का पूर्व अंदाजा लगा सकते हैं। ऐसे ही कुछ बेहतर बीजों की किस्मों में लोबिया सब्जी की किस्में काशी चंदन को शामिल किया जाता है, मटर की किस्म काशी नंदिनी और उदय के अलावा भिंडी की किस्म का काशी चमन कम समय में ही अधिक उत्पादकता उपलब्ध करवाती है।

कैसे निर्धारित करें बीज की बुवाई या नर्सरी में तैयार पौध रोपण का सही समय ?

किसान भाइयों को सब्जी उत्पादन में आने वाली लागत को कम करने के लिए बीज की बुवाई का सही समय चुनना अनिवार्य हो जाता है। समय पर बीज की बुवाई करने से कई प्रकार के रोग और कीटों से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है और फसल की वर्द्धि भी सही तरीके से हो जाती है, जिससे जमीन में उपलब्ध पोषक तत्वों का इस्तेमाल फसल के द्वारा ही कर लिया जाता है और खरपतवार का नियंत्रण आसानी से हो जाता है। कृषि वैज्ञानिकों की राय में मटर की बुवाई नवंबर के शुरुआती सप्ताह में की जानी चाहिए, मिर्च और बैंगन जुलाई के पहले सप्ताह में और टमाटर सितंबर के पहले सप्ताह में बोये जाने चाहिए।

कैसे करें बीज का बेहतर उपचार ?

खेत में अंतिम जुताई से पहले बीज का बेहतर उपचार करना अनिवार्य है, वर्तमान में कई प्रकार के रासायनिक पदार्थ जैसे कि थायो-मेथोक्जम ड्रेसिंग पाउडर से बीज का उपचार करने पर उसमें कीटों का प्रभाव कम होता है और अगले 1 से 2 महीने तक बीज को सुरक्षित रखा जा सकता है।


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कैसे करें सब्जी उत्पादन में आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल ?

वर्तमान में कई वैज्ञानिक अध्ययनों से नई प्रकार की तकनीक सामने आई है, जो कि निम्न प्रकार है :-
  • ट्रैप फसलों (Trap crop) का इस्तेमाल करना :

इन फसलों को 'प्रपंच फसलों' के नाम से भी जाना जाता है।

मुख्यतः इनका इस्तेमाल सब्जी की फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों से बचाने के लिए किया जाता है।

पिछले 10 वर्षों से कृषि क्षेत्र में सक्रिय कृषि वैज्ञानिक 'नीरज सिंह' के अनुसार यदि कोई किसान गोभी की सब्जी उगाना चाहता है, तो गोभी की 25 से 30 पंक्तियों के बाद, अगली दो से तीन पंक्तियों में सरसों का रोपण कर देना चाहिए, जिससे उस समय गोभी की फसल को नुकसान पहुंचाने वाले डायमंडबैक मॉथ और माहूँ जैसे कीट सरसों पर आकर्षित हो जाते हैं, इससे गोभी की फसल को इन कीटों के आक्रमण से बचाया जा सकता है।

इसके अलावा टमाटर की फसल के दौरान गेंदे की फसल का इस्तेमाल भी ट्रैप फसल के रूप में किया जा सकता है।

  • फेरोमोन ट्रैप (pheromone trap) का इस्तेमाल :

इसका इस्तेमाल मुख्यतः सब्जियों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को पकड़ने में किया जाता है।

गोभी और कद्दू की फसलों में लगने वाला कीट 'फल मक्खी' को फेरोमोन ट्रैप की मदद से आसानी से पकड़ा जा सकता है।

इसके अलावा फल छेदक और कई प्रकार के कैटरपिलर के लार्वा को पकड़ने में भी इस तकनीक का इस्तेमाल किया जा सकता है।



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हाल ही में बेंगुलुरू की कृषि क्षेत्र से जुड़ी एक स्टार्टअप कम्पनी के द्वारा तैयार की गई चिपकने वाली स्टिकी ट्रैप (या insect glue trap) को भी बाजार में बेचा जा रहा है, जो आने वाले समय में किसानों के लिए उपयोगी साबित हो सकती है। आशा करते हैं Merikheti.com के द्वारा उपलब्ध करवाई गई यह जानकारी बदलते वक्त के साथ बढ़ती महंगाई और खाद्य उत्पादों की मांग की आपूर्ति सुनिश्चित करने में किसान भाइयों की मदद करने के अलावा उन्हें मुनाफे की राह पर भी ले जाने में भी सहायक होगी।
जानिए कैसा रहेगा अलीगढ़ जनपद का मौसम एवं महत्वपूर्ण सलाहें

जानिए कैसा रहेगा अलीगढ़ जनपद का मौसम एवं महत्वपूर्ण सलाहें

कृषि विज्ञान केंद्र द्वारा दी गयी जानकारी के अनुसार आने वाले दिनों में मौसम शुष्क रहेगा। अधिकतम एवं न्यूनतम तापमान क्रमश: २४.० से २७.० व १०.० से ११ .० डिग्री सेल्सियस रहेगा | इस दौरान पूर्वाह्न ७ .२१ को सापेक्षिक आद्रता ६० से ८५ तथा दोपहर बाद अपराह्न २.२१ को ४५ से ५५ प्रतिशत रहेगा। हवा ४.० -१३ .० कमी/घंटे की गति से चलने का अनुमान है। ईआरएफएस उत्पाद के अनुसार से २७ नवंबर- ३ दिसंबर २०२२ में अधिकतम तापमान,न्यूनतम तापमान सामाय और वर्षा सामान्य से कम हो सकती है। गन्ने की बुवाई नवंबर से पहले करें क्योंकि उसके बाद तापमान कम होगा एवं अंकुरण कम होगा। १५ दिन के अंतराल पर सिंचाई करें और बुवाई के २५-३० दिन बाद निराई करें।

फसल संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी व सलाह

मसूर की बुवाई

मसूर की बुवाई जिसने ना करी हो वे अभी कर सकते हैं, लेकिन प्रति हैक्टेयर ५५ से ७५ किलो ग्राम बीज लगेगा। बुवाई के ४५ दिन बाद पहली सिंचाई कर और बोआई के ५५ से ७५ दिन बाद फूल निकलने से पहले सिंचाई करें।

गेहूँ की बुवाई

गेहूँ के खेत की तैयारी में देख लें कि मिट्टी भुरभुरी हो जाए डले ना रह जाए। गेहूँ की बुवाई का सबसे अच्छा समय १५ से ३० नवंबर तक है, इस मध्य गेहूँ की बुवाई हर हाल में पूरी कर लें। HD २९६७, UP २३८२, PBW ५०२ आदि २.५ ग्राम कार्बेन्डजिन प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से बीजोपचार करें पंक्ति के मध्य २०-३० सेमी की दूरी और पौधे के बीच १० सेमी रखें।
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बागवानी संबंधित आवश्यक सलाह

टमाटर ग्रीष्म ऋतु की फसल हेतु कम व अधिक बढ़ने वाली दोनों प्रजातियों की रोपाई ६०४५ सेंटीमीटर पर करें। टमाटर में खरपतवार नियंत्रण हेतु प्रति हैक्टेयर पेंडीमेथिलीन १ किलोग्राम सक्रिय तत्व रोपण के 2 दिन बाद १००० लीटर पानी में घोलकर बनाकर प्रयोग करें।

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अधिक आद्रता के कारण, आलू और टमाटर में ब्लाइट का संक्रमण हो सकता है। लगातार नगरानी की सलाह दी जाती है। यदि लक्षण दिखें तो कार्बनडीजीन@ 1.0 ग्राम / लीटर पानी या Dithane-M-45 @ 2.0 ग्राम / लीटर पानी की दर से स्प्रे करने की सलाह दी जाती है।
मूंग की खेती में लगने वाले रोग एवं इस प्रकार से करें उनका प्रबंधन

मूंग की खेती में लगने वाले रोग एवं इस प्रकार से करें उनका प्रबंधन

इन दिनों देश में जायद मूंग की बुवाई चल रही है। कुछ दिनों में ही यह ग्रीष्मकालीन मूंग खेतों में लहलहाने लगेगी। पौधों के बढ़ने के साथ ही मूंग की खेती में कई प्रकार के रोग लगना प्रारंभ हो जाते हैं जिनके कारण फसल बुरी तरह से प्रभावित होती है। इसलिए आज हम आपको बताने जा रहे हैं  मूंग की फसल में लगने वाले रोगों के बारे में। साथ ही रोगों का प्रबंधन किस प्रकार से किया जाए ताकि फसल को नुकसान न हो, इसके बारे में भी जानकारी दी जाएगी।

पीला मोज़ेक रोग

यह मूंग की फसल में लगने वाला विषाणु जनित रोग है, जो तेजी से फैलता है। यह सबसे ज्यादा सफेद मक्खियों के कारण फैलता है। इसकी वजह से फसल कई बार पूरी तरह से नष्ट हो जाती है। जब पौधों में इसका अटैक होता है तो पत्तियों में पीले धब्बे पड़ जाते हैं। कुछ समय बाद पत्तियां पूरी तरह से पीली होकर सूख जाती हैं। जिन पेड़ों में इसका ज्यादा असर होता है उनमें फलियों और बीजों पर भी पीले धब्बे दिखाई देते हैं। ये भी पढ़े: फायदे का सौदा है मूंग की खेती, जानिए बुवाई करने का सही तरीका

इस प्रकार से पाएं इस रोग से छुटाकारा

इस रोग से निपटने के लिए बुवाई एक समय ऐसी किस्मों का चयन करें जिनमें इस रोग का प्रभाव नहीं पड़ता है। इसलिए बुवाई के लिए मूंग की टी.जे.एम.-3, के-851, पंत मूंग -2, पूसा विशाल, एच.यू.एम. -1 जैसी किस्मों को ले सकते हैं। इसके अलावा यदि प्रारम्भिक अवस्था में ही रोग लगना शुरू हो गया है तो पौधों को उखाड़कर नष्ट कर दें। साथ ही बाजार में उपलब्ध कीटनाशकों का प्रयोग भी कर सकतें हैं।

श्याम वर्ण रोग

यह एक खतरनाक रोग है जिसके कारण उत्पादन में 25 से लेकर 60 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। अगर आसमान में बादल छाए हुए है तो फसल में यह रोग आसानी से लग सकता है। इस रोग के कारण पेड़ की पत्तियों में गंभीर धब्बे दिखाई देते हैं। इससे पत्तियों में छेद हो जाते हैं और अंततः पत्तियां झड़ जाती हैं। पेड़ों के तनों पर गहरे और गंभीर घाव बन जाते है और अंततः नए पौधे मर जाते हैं। ये भी पढ़े: चने की फसल को नुकसान पहुँचाने वाले प्रमुख रोग और इनका प्रबंधन

इस प्रकार से करें इस रोग का प्रबंधन

पेड़ों में लक्षण दिखाई देने पर 15 दिनों के अंतराल पर जिऩेब या थीरम का छिडक़ाव करें। इसके पहले बुवाई के पहले भी बीजों को उपचारित करें, इसके उपरांत बुवाई करें। साथ ही कार्बेन्डाजिम या मेनकोजेब का छिड़काव भी इस रोग को जल्द ही खत्म कर देता है।

चूर्णी फफूंद रोग

यह वायु द्वारा परपोषी पौधों के द्वारा फैलने वाला रोग है जो गर्मी और शुष्क वातावरण में फैलता है। अपनी उग्र अवस्था में यह रोग फसल का 21% हिस्सा नष्ट कर सकता है। इस रोग के कारण मूंग के पौधों की पत्तियों ने निचले हिस्सों में गहरे रंग के धब्बे प्रकट होते हैं। इसके साथ ही छोटी-छोटी बिंदियां भी दिखाई देने लगती हैं। समय के साथ ही इन बिंदियों और धब्बों का आकार बढ़ने लगता है और यह रोग पत्तियों के साथ पौधों के तनों पर भी फैल जाता है। इससे अंततः पौधे पूरी तरह से सूख जाते हैं। ये भी पढ़े: मध्य प्रदेेश में एमएसपी (MSP) पर 8 अगस्त से इन जिलों में शुरू होगी मूंग, उड़द की खरीद

इस प्रकार से करें चूर्णी फफूंद रोग का प्रबंधन

फसल में इस रोग से निपटने के लिए  कवकनाशी जैसे कार्बेन्डाजिम या केराथेन के घोल का छिड़काव कर सकते हैं। इनका छिड़काव रोग के लक्षण दिखते ही शुरू कर दें। इसके बाद 15-20 दिन के अंतराल में इनका छिड़काव करते रहें।

सर्कोस्पोरा पर्णदाग रोग

यह एक कवक रोग है जो मूंग की फसल में बरसात के मौसम में तथा शुष्क मौसम में फैलता है। गर्म तापमान, लगातार वर्षा, और उच्च आर्द्रता के कारण यह रोग मूंग के पौधे को अपनी जद में ले लेता है। इस रोग के कारण आमतौर पर गहरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं जो लाल बाहरी किनारों से घिरे होते हैं। जब यह रोग फसल में ज्यादा फैल जाता है तो मूंग के पेड़ों की शाखाओं और तने पर भी धब्बे दिखाई देते हैं।

सर्कोस्पोरा पर्णदाग रोग का प्रबंधन

संक्रमित फसल अवशेषों को नष्ट करने के साथ ही खेत की सफाई से यह रोग नियंत्रित होता है। बुवाई से पहले कवकनाशी कैप्टान या थीरम से बीज को उपचारित कर लें। इसके साथ ही मेन्कोजेब 75 डब्ल्यू. पी. और कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यू. पी. के घोल का छिड़काव करने से भी इस रोग के प्रसार में नियंत्रण पाया जा सकता है।

लीफ कर्ल

यह एक विषाणु जनित रोग है जो मक्खियों के कारण या बीजों के कारण फैलता है। इस रोग के कारण पौधे की पत्तियों में झुर्रियां आने लगती हैं। इसके साथ ही पत्तियां जरूरत से ज्यादा बड़ी होने लगती हैं। इससे पौधे का विकास रुक जाता है और पौधे में नाम मात्र की फलियां आती है। बुवाई के 4 से 5 सप्ताह के भीतर ही पौधों में ये लक्षण दिखाई देने लग जाते हैं। इस रोग से संक्रमित पौधों को खेत में दूर से ही पहचाना जा सकता है। ये भी पढ़े: इस राज्य के किसान फसल पर हुए फफूंद संक्रमण से बेहद चिंतित सरकार से मांगी आर्थिक सहायता

लीफ कर्ल रोग का प्रबंधन

इस रोग को नियंत्रित करने के लिए बुवाई से पहले बीज को इमिडाक्लोप्रिड से उपचारित करना चाहिए। इसके साथ ही बुवाई के 15 दिनों के बाद इमिडाक्लोप्रिड को पानी में घोलकर छिड़काव भी करना चाहिए। इससे लीफ कर्ल रोग को फसल पर प्रकोप कम हो सकता है।
इस घास से किसानों की फसल को होता है भारी नुकसान, इसको इस तरह से काबू में किया जा सकता है

इस घास से किसानों की फसल को होता है भारी नुकसान, इसको इस तरह से काबू में किया जा सकता है

भारत में खेती-किसानी से काफी मोटी आमदनी अर्जित करने के लिए मुनाफा प्रदान करने वाली फसलों समेत हानि पहुँचाने वाली फसलों का भी ख्याल रखना बहुत आवश्यक होता है। क्योंकि एक छोटी घास भी काफी बड़ी हानि पहुंचाती है। इसी मध्य आपको एक ऐसी ही घास के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसकी वजह से फसल को 40 प्रतिशत तक हानि पहुंच सकती है, जिससे बचना काफी जरूरी हो जाता है। बतादें, कि देश में कृषि के अंतर्गत फसलों में सर्वाधिक हानि खरपतवारों की वजह मानी जा रही है। यह हानिकारक घास पौधों का पोषण सोखकर उनको कमजोर कर देती है। साथ ही, कीट-रोगों को भी निमंत्रण दे देती है, जिसके वजह से फसलों की पैदावार 40 प्रतिशत कम हो जाती है।

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टमाटर की किस्में, कीट एवं रोग नियंत्रण गाजर घास खेतों में तबाही मचाने वाली इन्हीं परेशानियों में सम्मिलित है, जिसके संपर्क में आते ही फसलें ही नहीं लोगों का स्वास्थ्य भी बुरी तरह प्रभावित होती है। इस प्रकार के खरपतवारों पर नियंत्रण करने के लिए कृषि विशेषज्ञों की ओर से निरंतर प्रबंधन एवं निगरानी करने की राय दी जाती है। जिससे कि किसान भाई अपनी फसल में वक्त से ही खरपतवारों पर नियंत्रण पाया जा सके। साथ ही, फसलों में हानि होने से रोकी जा सके।

गाजर घास से क्या-क्या हानि होती है

बेहद कम लोग इस बात से अवगत हैं, कि खेतों में गाजर घास उगने पर फसलों के साथ-साथ किसानों के स्वास्थ पर भी दुष्प्रभाव पड़ा है। इसके संपर्क में आते ही बुखार, दमा, एग्जिमा और एलर्जी जैसी बीमारियों की आशंका बढ़ जाती है। यह घास फसलों की पैदावार और उत्पादकता पर प्रभाव डालती है। विशेष रूप से अरण्डी, गन्ना, बाजरा, मूंगफली, मक्का, सोयाबीन, मटर और तिल के साथ साथ सब्जियों सहित बहुत सारी बागवानी फसलों पर इसका प्रभाव देखने को मिलता है। इसके चलते फसल के अंकुरण से लेकर पौधों का विकास तक संकट में रहता है। इसके प्रभाव की वजह से पशुओं में दूध पैदावार की क्षमता भी कम हो जाती है। इसकी वजह से पशु चारे का स्वाद भी कड़वा हो जाता है। साथ ही, पशुओं के स्वास्थ्य पर भी दुष्प्रभाव पड़ने लगता है। कहा जाता है, कि फसलों पर 40 प्रतिशत तक की हानि होती है।

नुकसानदायक गाजर घास भारत में कैसे आई थी

बतादें, कि यह घास भारत के प्रत्येक राज्य में पाई जाती है। यह लगभग 35 मिलियन हेक्टेयर में फैली हुई है। यह घास खेत खलिहानों में जम जाती है। आस-पास में उगे समस्त पौधों का टिकना कठिन कर देती है, जिसके चलते औषधीय फसलों के साथ-साथ चारा फसलों की पैदावार में भी कमी आती है। विशेषज्ञों के मुताबिक, यह घास भारत की उपज नहीं है। यह वर्ष 1955 के समय अमेरिका से आयात होने वाले गेहूं के माध्यम से भारत आई। समस्त प्रदेशों में गेहूं की फसल के माध्यम से फैली है।

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गाजर घास को किस तरह से नियंत्रण में लाया जा सकता है

गाजर घास को नियंत्रित करने हेतु बहुत सारे कृषि संस्थान और कृषि वैज्ञानिक जागरुकता अभियान का संचालन करते हैं, जिससे जान-मान का खतरा नहीं हो सके। साथ ही, एग्रोनॉमी विज्ञान विभाग खरपतवार अनुसंधान निदेशालय, जबलपुर और चौधरी सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय और हिसार किसानों से जानकारियां साझा कर रहे हैं। वहीं, कुछ कृषि विशेषज्ञ रोकथाम करने हेतु खरपतवारनाशी दवायें जैसे- सोडियम क्लोराइड, सिमाजिन, एट्राजिन, एलाक्लोर और डाइयूरोन सल्फेट आदि के छिड़काव की सलाह दे रहे हैं। इसके अतिरिक्त इसके जैविक निराकरण के तौर पर एक एकड़ हेतु बीटल पालने की राय दी जाती है। प्रति एकड़ खेत में 3-4 लाख कीटों को पालकर गाजर घास का जड़ से खत्मा किया जा सकता है। चाहें तो जंगली चौलाई, केशिया टोरा, गेंदा, टेफ्रोशिया पर्पूरिया जैसे पौधों को पैदाकर के भी इसके प्रभाव से बचा जा सकता है।

गाजर घास के बहुत सारे फायदे भी हैं

वैसे तो गाजर घास खरपतवारों के तौर पर फसलों के लिए बड़ी परेशानी है। परंतु, इसमें विघमान औषधीय गुणों की वजह से यह संजीवनी भी बन सकती है। किसान इसका उपयोग वर्मीकंपोस्ट यूनिट में किया जा सकता हैं। जहां यह खाद के जीवांश एवं कार्बनिक गुणों में वृद्धि करती है। साथ ही, एक बेहतरीन खरपतवारनाशक, कीटनाशक और जीवाणुनाशक दवा के रूप में भी इसका उपयोग किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त मृदा के कटाव को रोकने के लिए भी गाजर घास की अहम भूमिका है। इस वजह से किसान सावधानी से गाजर घास का प्रबंधन कर सकते हैं।